"वक़्त का जबाब"
क्यों जान लेने पर आमादा इतने?
पेट जानवरों से क्यों भर रहे।
प्रकृति ही देगी भर-भरकर इतना,
गर इंसान इंसानियत से रहे।
कुछ दर्द समझो अब उनका,
जो धरती पर नर्क समान रहे।
खिलखिला कर हँसेगी प्रकृति सारी,
गर इंसान इंसानियत से रहे।
है विकास के पथ पर चलना अच्छा,
पर गला धरती का क्यों घोंट रहे।
आखिर हों ही क्यों ये महामारियां,
गर इंसान इंसानियत से रहे।
कितना रुलाया है प्रकृति को हमनें,
क्या बात हम ये समझ रहे।
बढ़ते ही क्यों ये मौत के आंकड़े,
गर इंसान इंसानियत से रहे।
खैर वक़्त लाता है फल कर्मों का,
क्यों वक़्त को आज हम कोस रहे।
क्यों होना पड़े बंद कमरों में आखिर,
गर इंसान इंसानियत से रहे।
हाँ सब हमारी ही करतूतें हैं ये,
खुद जान से अपनी खेल रहे।
यूँ बे-मौत ना मरती प्रकृति कभी,
गर इंसान इंसानियत से रहे।
अमित चौबे
श्रीराम नगर, सागर म. प्र.।
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